विपरीत परिस्थितियों में अधिकतर लोग टूट जाते है, तो कुछ लोग इस परिस्थिति का डट कर सामना भी कर लेते है और आत्मविश्वास के साथ कड़ी मेहनत करते हुए इन परिस्थितियों से खुद को बहार कर जीवन में सफलता की और आगे बढ़ते जाते है।
गरीब और दिव्यांग लोगों के लिए तो जीवन और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है, लेकिन अगर मन में कामयाबी पाने की सच्ची चाह हो तो आपके लिए सफलता के सभी द्वार खुल जाते है। आज हम एक ऐसे शख्स की बात कर रहे है, जिनके पिता मजदूर, मां नेत्रहीन और स्वयं सौ प्रतिशत बहरेपन का शिकार इसके बावजूद उन्होंने अपनी शारीरिक कमी को अपनी कमजोरी न मानते हुए परिश्रम का रास्ता चुना और कामयाबी हाशिल की और IAS अधिकारी बनकर अपना सपना पूरा किया।
मनीराम शर्मा (IAS Maniram Sharma)
राजस्थान के अलवर जिले में एक गांव है बंदनगढ़ी। साल 1975 में इसी गांव के एक बेहद ही गरीब परिवार में मनीराम शर्मा का जन्म हुआ था। पिता मजदूर थे, मां की आंखों की रोशनी नहीं थी और मनीराम शर्मा खुद सुन नहीं सकते थे। उस वक्त इस गांव में कोई स्कूल भी नहीं था। लिहाजा बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बड़ी मुश्किल थी। लेकिन मनीराम शर्मा को पढ़ाई-लिखाई का बहुत ही शौक था। वो गांव में स्कूल ना होने की वजह से 5 किलोमीटर पैदल चलकर हर रोज स्कूल जाया करते थे। जीवन में अभावों और विकलांगता के बाद भी वे पूरी लगन से पढाई किया करते थे। नतीज़न उन्हें राज्य शिक्षा बोर्ड की 10वीं की परीक्षा में पांचवां और 12वीं की परीक्षा में सातवां स्थान मिला।
मनीराम शर्मा के जीवन की खट्टी-मीठी यादें
जब मनीराम ने 10वीं की परीक्षा पास की तो उनके पिता जी बहुत खुस हुए, क्यूंकि उन्हें लगता था की अब मणि को चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी। इसलिए मनीराम के मित्र जब खेड़ली जाकर रिजल्ट देखकर आए घर आये और उसने मनीराम के पिता को उनके 10वीं की परीक्षा पास करने के बारे में बताया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और वे किसी परिचित विकास अधिकारी के पास ले गए और बोले, बेटा दसवीं में पास हुआ है चपरासी लगा दो। बीडीओ ने कहा ये तो सुन ही नहीं सकता। इसे न घंटी सुनाई देगी न ही किसी की आवाज। ये कैसे चपरासी बन सकता है। पिता की आंखों में आंसू छलक आए। खुद को घोर अपमानित महसूस किया। मनीराम को अपनी काबिलियत पर भरोषा था, जब उन्होंने अपने पिताजी को दुखी देखा तो उसने कहा “पिता जी आप मुझपे भरोषा रखिये, अगर मैं पास हो गया हूँ तो एक दिन बड़ा अफसर भी बन जाऊंगा”।
यूनिवर्सिटी में रहे टॉपर
मनीराम के प्रधानाध्यापक को उनकी काबिलियत का आभास हो गया था और उन्होंने उनके पिता को राजी कर लिया कि वो अपने बेटे को आगे की पढ़ाई के लिए बाहर भेजेंगे। अलवर के एक कॉलेज में दाखिला मिलने के बाद मनीराम ने यहां ट्यूशन पढ़ाकर आगे की पढ़ाई करने लगे। जब मनीराम कॉलेज में दूसरे साल में थे तब राज्य की लिपिक वर्ग की परीक्षा में सफल हो गए। फिर कॉलेज में वे अंतिम साल तक पढाई भी करते और साथ ही क्लर्क की जॉब भी चालू राखी।
वे पोलिटिकल साइंस से पुरे कॉलेज में टोपर आये और उन्होंने NET का एग्जाम दिया जिसमे उसे सफलता मिली और क्लर्क की नौकरी छोड़ कर लेक्चरर बन गए। हालाँकि मनीराम अभी अपनी पढाई से संतुस्ट नहीं थे उन्होंने PHD करने की ठानी और उन्हें पीएचडी करने के लिए वजीफा मिल गया। पीएचडी करने के बाद वे आईएएस अफसर बनने की ठानी। इसके बाद मनीराम शर्मा की जिंदगी का एक और संघर्ष शुरू हुआ। उन्होंने साल 2005 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर ली। उस वक्त बहरेपन के कारण उन्हें नौकरी नहीं मिली।
इस तरह से पूरा किया अपना लक्ष्य
लेकिन इरादों के पक्के मनीराम शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी और साल 2006 में दोबारा यह परीक्षा पास कर ली। इस बार उन्हें पोस्ट एंड टेलीग्राफ अकाउंट्स की कमतर नौकरी दी गई, जो उन्होंने ले ली। अब उन्हें ये यकीन हो गया था की जब तक उनके शारीरिक अक्षमता का इलाज नहीं हो जाता उनका लक्ष्य पूरा नहीं हो पायेगा। वे बहरेपन को दूर करने के लिए इलाज की तलाश में डॉक्टरों से संपर्क किए, इसी दौरान एक डॉक्टर ने बताया कि ऑपरेशन करके उनके बहरेपन को दूर किया जा सकता है। उनकी सुनने की क्षमता वापस आ सकती है, जिसके लिए 7.5 लाख रुपए की जरूरत थी। इतने पैसों का व्यवस्था करना मनीराम के लिए बहुत मुश्किल काम था लेकिन क्षेत्र के सांसद ने विभिन्न संगठनों औऱ आम लोगों के सहयोग से यह पैसे जुटाए। मनीराम शर्मा का ऑपरेशन सफल रहा। नतीजा यह हुआ कि मनीराम शर्मा पूरी तरह से ठीक हो गए। इसके बाद साल 2009 में वो फिर UPSC की परीक्षा में बैठे और पास हो गए। इसपार उन्होंने IAS बनकर अपना सपना पूरा कर लिया।